रात की नींद खोते हैं, भोर के ख्वाब खोते हैं
घर में सब लोग सोते हैं, अकेले हम ही उठते हैं.
हरारत और थकावट है मगर इस आपाधापी में, हमारे पांव बढ़ते हैं मिसालें रोज गढ़ते हैं.
कभी शरबत मचलता था, मगर अब चाय इठलाती
सुबह ऑफिस की हड़बड़ में, नहीं कम्बख्त पी जाती.
है दफ्तर दूर फिर भी हम, यहां टाइम से आते हैं
सफर होता है मुश्किल पर, न हम परवाह करते हैं.
हम ऑफिस रोज आते हैं बड़ा ही नाज रखते हैं
कभी कुछ काज करते हैं, कभी कुछ साज रचते हैं.
सिसकते टूटते अहसास नई उम्मीद देते हैं,
लगी है प्यास सदियों से कुएं हर रोज खुदते हैं.
निगाहों को बिछाए रोज मेरी राह तकता है,
जरा सी देर हो जाए तो वह नाराज होता है,
दुबक्कर एक कोने में शाम का वेट करता है,
नहीं कोई और बस ऑफिस का वो अदना रजिस्टर है.
सुबह कुछ शाम कुछ, कुछ-कुछ में, घर को हम निकलते हैं
रजिस्टर को नहीं घिसना उसे गुडबाय कहते हैं…
रजिस्टर तो रजिस्टर है उसे गुडबाय कहते हैं
Written By Ashwini Kumar
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